अवनीश तिवारी
Friday, December 18, 2009
Thursday, November 5, 2009
Sunday, September 27, 2009
कुँवारी बेटी का बाप
सामाजिक जर्जरता का विरोध है इस रचना में -
http://kavita.hindyugm.com/2008/08/father-of-unmarried-daughter-in-india.html
अवनीश तिवारी
किशोर कुमार
शिवोहम्
एक प्रकाशित छंद - बद्ध रचना " शिवोहम् " -
http://www.sahityashilpi.com/2009/09/blog-post_7899.html
अवनीश तिवारी
http://www.sahityashilpi.com/2009/09/blog-post_7899.html
अवनीश तिवारी
मैथिलीशरण गुप्त की भारत - भारती
मैथिलीशरण गुप्त की पुस्तक भारत - भारती पर लिखी मेरी संक्षिप्त विवेचना नीचे देखी जा सकती है -
http://www.sahityashilpi.com/2009/08/blog-post_07.html
भारतवर्ष के संक्षिप्त दर्शन की काव्यात्मक प्रस्तुति "भारत - भारती " [पुस्तक चर्चा] - अवनीश एस. तिवारी
"भारत - भारती ", मैथिलीशरण गुप्तजी द्वारा स्वदेश प्रेम को दर्शाते हुए वर्तमान और भावी दुर्दशा से उबरने के लिए समाधान खोजने का एक सफल प्रयोग है|
भारतवर्ष के संक्षिप्त दर्शन की काव्यात्मक प्रस्तुति "भारत - भारती " निश्चित रूप से किसी शोध कार्य से कम नहीं है| गुप्तजी की सृजनता की दक्षता
का परिचय देनेवाली यह पुस्तक कई सामाजिक आयामों पर विचार करने को विवश करती है| यह सामग्री तीन भागों में बाँटीं गयी है|
अतीत - खंड -
यह भाग भारतवर्ष के इतिहास पर गर्व करने को पूर्णत: विवश करता है| उस समय के दर्शन, धर्म - काल, प्राकृतिक संपदा, कला-कौशल, ज्ञान - विज्ञान,
सामाजिक - व्यवस्था जैसे तत्त्वों को संक्षिप्त रूप से स्मरण करवाया गया है| अतिशयोक्ति से दूर इसकी सामग्री संलग्न दी गयी टीका - टिप्पणियों के
प्रमाण के कारण सरलता से ग्राह्य हो जाती हैं| मेगास्थनीज से लेकर आर. सी. दत्त तक के कथनों को प्रासंगिक ढंग से पाठकों के समक्ष रखना एक कुशल
नियोजन का सूचक है| निरपेक्षता का ध्यान रखते हुए निन्दा और प्रशंसा के प्रदर्शन हुए है, जैसे मुग़ल काल के कुछ क्रूर शासकों की निंदा हुयी है तो
अकबर जैसे मुग़ल शासक का बखान भी हुया है| अंग्रेजों की उनके आविष्कार और आधुनिकीकरण के प्रचार के कारण प्रशंसा भी हुयी है|
भारतवर्ष के दर्शन पर वे कहते हैं -
पाये प्रथम जिनसे जगत ने दार्शनिक संवाद हैं -
गौतम, कपिल, जैमिनी, पतंजली, व्यास और कणाद है|
नीति पर उनके द्विपद ऐसे हैं -
सामान्य नीति समेत ऐसे राजनीतिक ग्रन्थ हैं-
संसार के हित जो प्रथम पुण्याचरण के पंथ हैं|
सूत्रग्रंथ के सन्दर्भ में ऋषियों के विद्वता पर वे लिखते हैं -
उन ऋषि-गणों ने सूक्ष्मता से काम कितना है लिया,
आश्चर्य है, घट में उन्होंने सिन्धु को है भर दिया|
वर्तमान खंड -
दारिद्रय, नैतिक पतन, अव्यवस्था और आपसी भेदभाव से जूझते उससमय के देश की दुर्दशा को दर्शाते हुए, सामजिक नूतनता की मांग रखी गयी है |
अपनी हुयी आत्म - विस्मृति पर वे कहते हैं -
हम आज क्या से क्या हुए, भूले हुए हैं हम इसे ,
है ध्यान अपने मान का, हममें बताओ अब किसे !
पूर्वज हमारे कौन थे , हमको नहीं यह ज्ञान भी ,
है भार उनके नाम पर दो अंजली जल - दान भी |
नैतिक और धार्मिक पतन के लिए गुप्तजी ने उपदेशकों , संत - महंतों और ब्राहमणों की निष्क्रियता और मिथ्या - व्यवहार को दोषी मान शब्द बाण चलाये हैं|
इसतरह कविवर की लेखनी सामाजिक दुर्दशा के मुख्य कारणों को खोज उनके सुधार की मांग करती है |
हमारे सामाजिक उत्तरदायित्त्व की निष्क्रियता को उजागर करते हुए भी " वर्तमान खंड " आशा की गाँठ को बांधे रखती है|
भविष्यत् खंड -
अपने ज्ञान, विवेक और विचारों की सीमा को छूते हुए राष्ट्कवि ने समस्या समाधान के हल खोजने और लोगों से उसके के लिए आव्हान करने का भरसक प्रयास किया है |
आर्य वंशज हिन्दुओं को देश पुनर्स्थापना के लिए प्रेरित करते हुए वे कहते हैं -
हम हिन्दुओं के सामने आदर्श जैसे प्राप्त हैं -
संसार में किस जाती को, किस ठौर वैसे प्राप्त हैं ,
भव - सिन्धु में निज पूर्वजों के रीति से ही हम तरें ,
यदि हो सकें वैसे न हम तो अनुकरण तो भी करें |
पुस्तक की अंत की दो रचनाएं "शुभकामाना" और "विनय" कविवर की देशभक्ति की परिचायक है| तन में देश सद्भावना की ऊर्जा का संचार करनेवाली यह दो रचनाएं किसी प्रार्थना से कम नहीं लगती | वह अमर लेखनी ईश्वर से प्रार्थना करती है -
इस देश को हे दीनबन्धो! आप फिर अपनाइए,
भगवान्! भारतवर्ष को फिर पुण्य-भूमि बनाइये,
जड़-तुल्य जीवन आज इसका विघ्न-बाधा पूर्ण है,
हेरम्ब! अब अवलंब देकर विघ्नहर कहलाइए|
मैथिलीशरण गुप्तजी की रचना "भारत-भारती" को मैं अपने इन शब्दों से प्रणाम करता हूँ -
निज संस्कृति का विस्मरण हो कभी,
हो रहा स्वदेश - गर्व लुप्त भी,
कोई प्रेरणा न मन में हो जागती,
पढ़ लेना लेकर, "भारत-भारती"|
देश व्यवस्था हो रही जब लुंज सी,
बिखरे जब स्व-ज्ञान का पुंज भी,
कराने आत्म-ज्ञान की तब जागृती,
मनन कर लेना, ले "भारत-भारती"|
नव-वंश, नव-युग को देशाभिमान हो,
समाज, संस्कृति, देश का ज्ञान हो,
सदा से धरा यह पुकारती,
चिंतन हो पढ़-सुन, "भारत-भारती"|
http://www.sahityashilpi.com/2009/08/blog-post_07.html
भारतवर्ष के संक्षिप्त दर्शन की काव्यात्मक प्रस्तुति "भारत - भारती " [पुस्तक चर्चा] - अवनीश एस. तिवारी
"भारत - भारती ", मैथिलीशरण गुप्तजी द्वारा स्वदेश प्रेम को दर्शाते हुए वर्तमान और भावी दुर्दशा से उबरने के लिए समाधान खोजने का एक सफल प्रयोग है|
भारतवर्ष के संक्षिप्त दर्शन की काव्यात्मक प्रस्तुति "भारत - भारती " निश्चित रूप से किसी शोध कार्य से कम नहीं है| गुप्तजी की सृजनता की दक्षता
का परिचय देनेवाली यह पुस्तक कई सामाजिक आयामों पर विचार करने को विवश करती है| यह सामग्री तीन भागों में बाँटीं गयी है|
अतीत - खंड -
यह भाग भारतवर्ष के इतिहास पर गर्व करने को पूर्णत: विवश करता है| उस समय के दर्शन, धर्म - काल, प्राकृतिक संपदा, कला-कौशल, ज्ञान - विज्ञान,
सामाजिक - व्यवस्था जैसे तत्त्वों को संक्षिप्त रूप से स्मरण करवाया गया है| अतिशयोक्ति से दूर इसकी सामग्री संलग्न दी गयी टीका - टिप्पणियों के
प्रमाण के कारण सरलता से ग्राह्य हो जाती हैं| मेगास्थनीज से लेकर आर. सी. दत्त तक के कथनों को प्रासंगिक ढंग से पाठकों के समक्ष रखना एक कुशल
नियोजन का सूचक है| निरपेक्षता का ध्यान रखते हुए निन्दा और प्रशंसा के प्रदर्शन हुए है, जैसे मुग़ल काल के कुछ क्रूर शासकों की निंदा हुयी है तो
अकबर जैसे मुग़ल शासक का बखान भी हुया है| अंग्रेजों की उनके आविष्कार और आधुनिकीकरण के प्रचार के कारण प्रशंसा भी हुयी है|
भारतवर्ष के दर्शन पर वे कहते हैं -
पाये प्रथम जिनसे जगत ने दार्शनिक संवाद हैं -
गौतम, कपिल, जैमिनी, पतंजली, व्यास और कणाद है|
नीति पर उनके द्विपद ऐसे हैं -
सामान्य नीति समेत ऐसे राजनीतिक ग्रन्थ हैं-
संसार के हित जो प्रथम पुण्याचरण के पंथ हैं|
सूत्रग्रंथ के सन्दर्भ में ऋषियों के विद्वता पर वे लिखते हैं -
उन ऋषि-गणों ने सूक्ष्मता से काम कितना है लिया,
आश्चर्य है, घट में उन्होंने सिन्धु को है भर दिया|
वर्तमान खंड -
दारिद्रय, नैतिक पतन, अव्यवस्था और आपसी भेदभाव से जूझते उससमय के देश की दुर्दशा को दर्शाते हुए, सामजिक नूतनता की मांग रखी गयी है |
अपनी हुयी आत्म - विस्मृति पर वे कहते हैं -
हम आज क्या से क्या हुए, भूले हुए हैं हम इसे ,
है ध्यान अपने मान का, हममें बताओ अब किसे !
पूर्वज हमारे कौन थे , हमको नहीं यह ज्ञान भी ,
है भार उनके नाम पर दो अंजली जल - दान भी |
नैतिक और धार्मिक पतन के लिए गुप्तजी ने उपदेशकों , संत - महंतों और ब्राहमणों की निष्क्रियता और मिथ्या - व्यवहार को दोषी मान शब्द बाण चलाये हैं|
इसतरह कविवर की लेखनी सामाजिक दुर्दशा के मुख्य कारणों को खोज उनके सुधार की मांग करती है |
हमारे सामाजिक उत्तरदायित्त्व की निष्क्रियता को उजागर करते हुए भी " वर्तमान खंड " आशा की गाँठ को बांधे रखती है|
भविष्यत् खंड -
अपने ज्ञान, विवेक और विचारों की सीमा को छूते हुए राष्ट्कवि ने समस्या समाधान के हल खोजने और लोगों से उसके के लिए आव्हान करने का भरसक प्रयास किया है |
आर्य वंशज हिन्दुओं को देश पुनर्स्थापना के लिए प्रेरित करते हुए वे कहते हैं -
हम हिन्दुओं के सामने आदर्श जैसे प्राप्त हैं -
संसार में किस जाती को, किस ठौर वैसे प्राप्त हैं ,
भव - सिन्धु में निज पूर्वजों के रीति से ही हम तरें ,
यदि हो सकें वैसे न हम तो अनुकरण तो भी करें |
पुस्तक की अंत की दो रचनाएं "शुभकामाना" और "विनय" कविवर की देशभक्ति की परिचायक है| तन में देश सद्भावना की ऊर्जा का संचार करनेवाली यह दो रचनाएं किसी प्रार्थना से कम नहीं लगती | वह अमर लेखनी ईश्वर से प्रार्थना करती है -
इस देश को हे दीनबन्धो! आप फिर अपनाइए,
भगवान्! भारतवर्ष को फिर पुण्य-भूमि बनाइये,
जड़-तुल्य जीवन आज इसका विघ्न-बाधा पूर्ण है,
हेरम्ब! अब अवलंब देकर विघ्नहर कहलाइए|
मैथिलीशरण गुप्तजी की रचना "भारत-भारती" को मैं अपने इन शब्दों से प्रणाम करता हूँ -
निज संस्कृति का विस्मरण हो कभी,
हो रहा स्वदेश - गर्व लुप्त भी,
कोई प्रेरणा न मन में हो जागती,
पढ़ लेना लेकर, "भारत-भारती"|
देश व्यवस्था हो रही जब लुंज सी,
बिखरे जब स्व-ज्ञान का पुंज भी,
कराने आत्म-ज्ञान की तब जागृती,
मनन कर लेना, ले "भारत-भारती"|
नव-वंश, नव-युग को देशाभिमान हो,
समाज, संस्कृति, देश का ज्ञान हो,
सदा से धरा यह पुकारती,
चिंतन हो पढ़-सुन, "भारत-भारती"|
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